चमोली– आखिरकार बीते एक पखवाड़े से चल रही मां नंदा की वार्षिक लोकजात यात्रा का शनिवार को भावपूर्ण समापन हो गया। उच्च हिमालयी बुग्यालों में भक्तों ने अपनी आराध्य देवी, माँ नंदा, को कैलाश के लिए विदाई दी। यह विदाई इतनी भावुक थी कि महिलाओं और विशेषकर ‘धियाणियों’ (बेटियों) की आँखें अश्रुओं से छलछला गईं।
✅परंपरा, गीत और आँसुओं का संगम⤵️
यात्रा के अंतिम पड़ाव पर, श्रद्धालु पारंपरिक लोकगीतों और जागरों को गाते हुए देखे गए। “मेरी मैत की धियाणी तेरू बाटू हेरदू रोली” और “जा मेरी गौरा तू, चौखम्भा उकाली” जैसे गीत जब गूंजे, तो वे सिर्फ शब्द नहीं, बल्कि हृदय की गहराई से निकली भावनाएं थीं। ये गीत माँ नंदा को एक बेटी के रूप में विदा करते हैं, जो अपने मायके से ससुराल (कैलाश) जा रही है। इस दौरान महिलाओं का अपनी ‘ध्याण’ को विदा करते हुए रो पड़ना और विशेष रूप से ध्याणियों का फफककर रोना, इस परंपरा के भावनात्मक जुड़ाव को दर्शाता है।श्रद्धालुओं ने विदाई के समय माँ नंदा को ‘समौण’ (उपहार) भी अर्पित किया। इसमें खाजा-चूड़ा, बिंदी, चूड़ी, ककड़ी और मुंगरी जैसी पारंपरिक वस्तुएं शामिल थीं, जो एक बेटी को ससुराल भेजते समय दी जाती हैं। यह रस्म नंदा देवी को केवल एक देवी नहीं, बल्कि एक परिवार की बेटी मानने की भावना को पुष्ट करती है।अलग-अलग पड़ावों पर यात्रा का समापनशनिवार सुबह, नंदा सप्तमी के शुभ दिन पर, विभिन्न स्थानों पर यात्रा का समापन हुआ। नंदा राजराजेश्वरी की डोली हिमालयी उच्च बुग्याल बेदनी पहुंची, बंड की नंदा डोली नरेला बुग्याल पहुंची और कुरूड दशोली की नंदा डोली बालपाटा में पहुंची। इन सभी स्थानों पर विधि-विधान से पूजा-अर्चना की गई और तर्पण करके माँ नंदा को कैलाश के लिए विदा किया गया।







